नर्मदा बचाओ आंदोलन की महिला नेता

चाहे प्रभावित समुदायों से हों या घाटी के बाहर से आंदोलन के साथ जुड़ने वाली कार्यकर्ता, महिलाएं हमेशा नर्मदा बचाओ आंदोलन की अगुवाई करती आई हैं। चाहे गुजरात हो या  महाराष्ट्र या मध्य प्रदेश, महिलाओं ने हमेशा आंदोलन की बढ़ चढ़कर अगुवाई की है और इसके कारण राज्य के दमन का सबसे ज़्यादा खामयाजा भी भुगता है। सरदार सरोवर परियोजना और उसकी पीछे मौजूद विकास की अवधारणा का विरोध करने के लिए कई महिलाओं को जेल भेजा गया, मारा-पीटा गया और कुछ को लौंगिक उत्पीड़न का सामना भी करना पड़ा। यहां प्रस्तुत किये गए साक्षात्कार कुछ प्रमुख महिला नेताओं की आवाज़ें हैं जो संघर्ष के अपने अनुभव और आंदोलन के दौरान महिलाओं द्वारा निभाई गई विविध भूमिकाओं की चर्चा करती हैं।

डेडलीबाई वसावे 

डूब प्रभावित गांव: डोमखेड़ी, महाराष्ट्र 

फोटो सौजन्य: नंदिनी ओझा 

डेडलीबाई नर्मदा बचाओ आंदोलन की प्रमुख आदिवासी नेताओं में से एक रही हैं। उनका गांव डोमखेड़ी महाराष्ट्र में सरदार सरोवर परियोजना के डूब क्षेत्र में आने वाले 33 गांवों में से एक है। डेडलीबाई का आंदोलन में योगदान बेमिसाल रहा है, जिसके दौरान उन्होंने सरदार सरोवर परियोजना से प्रभावित दूर-दराज के आदिवासी गांवों की महिलाओं को एकजुट करने से लेकर सरकारी प्राधिकारों और समितियों के सामने नर्मदा बचाओ आंदोलन का प्रतिनिधित्व करने तक, कई ज़िम्मेदारियां निभाई हैं। डेडलीबाई का साक्षात्कार इसलिए भी अनूठा है क्योंकि वह अपनी और नर्मदा घाटी की उन आदिवासी महिलाओं की भूमिका की चर्चा करती हैं, जिन्हें कभी स्कूली शिक्षा नहीं मिली, जो उन गांवों से थी जहां कभी बिजली नहीं पहुँची और सरकार द्वारा रोड भी तब बनाई गई जब हज़ारों आदिवासी परिवारों को विस्थापित और स्थलांतरित किया जा रहा था।

साक्षात्कार की अवधी: 0:53:00

भाषा: पावरी, सबटाइटल्स अंग्रेज़ी में

पेरवी

डूब प्रभावित गांव जलसिंधी, मध्य प्रदेश

फोटो सौजन्य: नंदिनी ओझा 

पेरवी, नर्मदा बचाओ आंदोलन और खेडुत मज़दूर चेतना संगठन की एक आदिवासी नेता, मध्य प्रदेश में सरदार सरोवर परियोजना से प्रभावित 193 गांवों में से एक गांव जलसिंधी से हैं। नर्मदा बचाओ आंदोलन और खेडुत मज़दूर चेतना संगठन के साथ काम करते हुए, पेरवी को कई मोर्चों पर संघर्ष करना पड़ा। शुरुआत में 1980 के दशक में मध्य प्रदेश के वन विभाग के खिलाफ वन भूमि पर आदिवासियों के अधिकार स्थापित करने के लिए और राज्य द्वारा अवर्णनीय दमन के विरुद्ध; उसके बाद सरदार सरोवर परियोजना के खिलाफ नर्मदा बचाओ आंदोलन के साथ। इसलिए पेरवी का साक्षात्कार नर्मदा बचाओ आंदोलन और खेडुत मज़दूर चेतना संगठन द्वारा लड़े गए कई संघर्षों को समझने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।

साक्षात्कार की अवधी: 0:59:30

भाषा: भीलाली, सबटाइटल्स अंग्रेज़ी में

साधना दधीच

पुणे, महाराष्ट्र 

फोटो सौजन्य: अज्ञात

साधना दधीच नर्मदा बचाओ आंदोलन के शुरुआती दिनों से इसकी प्रमुख सदस्य रही हैं। महाराष्ट्र राज्य में नर्मदा बचाओ आंदोलन के विस्तार में लता पीएम, परवीन जहांगीर, सुहास कोल्हेकर जैसी अन्य महिला सदस्यों के साथ-साथ साधना की जबरदस्त भूमिका रही है। इन सभी ने अपने अथक परिश्रम से नर्मदा बचाओ आंदोलन की महाराष्ट्र में मजबूत नींव डाली। भारतीय सेना के लिए फ़िज़ियोथेरेपिस्ट के रूप में काम करने और सेवानिवृत्त होने वाली साधना ने शुरू में महिला अधिकारों के लिए काम किया और वे नारी समता मंच, पुणे की संस्थापक सदस्य थी। इसके बाद उन्होंने नर्मदा बचाओ आंदोलन के लिए काम करना शुरू किया, और अपना ज़्यादातर समय आंदोलन के वैचारिक आधार को मजबूत करने में, अपने शहर पुणे में नर्मदा बचाओ आंदोलन के समर्थक समूह (समन्वय समिति) की रचना और सशक्तिकरण में, महाराष्ट्र के अन्य हिस्सों का दौरा कर वहां समन्वय समितियों का गठन करने में और नर्मदा घाटी का, विशेष रूप से शुरूआती वर्षों में, दौरा करके आंदोलन से महिलाओं को जोड़ने और उनकी भागीदारी बढ़ाने में लगाया।

जहां तक बांधों का सवाल है, महाराष्ट्र एक अनूठा राज्य है। एक तरफ यहां देश में सबसे ज़्यादा बड़े बांध बनाये गए हैं और दूसरी तरफ देश का सबसे पहला बांध विरोधी आंदोलन, मुलशी सत्यग्रह भी यहीं लड़ा गया था। महाराष्ट्र में बड़े बांधों को न सिर्फ विकास परियोजना निर्माता बल्कि प्रभावशाली गन्ना लॉबी और प्रगतिशील तथा प्रतिष्ठित जन संगठनों और राजनीतिक दलों द्वारा समर्थन दिए जाने के कारण इस राज्य में नर्मदा बचाओ आंदोलन का विस्तार करना आसान नहीं था। लेकिन इसके बावजूद, साधना ने इस दिशा में साल दर साल लगातार प्रयास किये और आंदोलन के समर्थन में व्यापक स्तर पर गतिविधियां आयोजित की, खासतौर पर उस समय जब आंदोलन संकट के दौर से गुज़र रहा था।

साक्षात्कार की अवधी: 2:46:00

भाषा: हिंदी और अंग्रेज़ी, सबटाइटल्स अंग्रेज़ी में

कपिलाबेन तड़वी 

वाघड़िया, गुजरात 

फोटो सौजन्य: नर्मदा आंदोलन समूह

“वे हमें बहुत मारते हैं…वे खासतौर हम महिलाओं को पीटते हैं; यह मानते हुए कि महिलाएं ज़्यादा हिम्मत दिखाती हैं… हम आंदोलन की शुरुआत से ही जेल जाती रही हैं”, कपिलाबेन तड़वी। 

कपिलाबेन, गुजरात में नर्मदा बचाओ आंदोलन की प्रमुख आदिवासी नेताओं में से एक, जिनका मार्च 2021 में इसे लिखे जाने के समय दुखद रूप से देहांत हो गया। कपिलाबेन वाघड़िया गांव की रहनी वाली थी, जो सरदार सरोवर परियोजना के कर्मचारियों के लिए आवासीय कॉलोनी (केवड़िया कॉलोनी) के लिए अधिगृहित 6 गांवो में से एक गांव था। केवड़िया कॉलोनी, जो अब विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा – स्टेचू ऑफ़ यूनिटी- के लिए मशहूर है, सरदार सरोवर परियोजना की 1961 में नींव रखे जाने के साथ ही आदिवासी गांवों द्वारा आंदोलन का केंद्र बन गई थी। इन गांवों की आदिवासी महिलाओं का संघर्ष असाधारण रहा है, क्योंकि उन्होंने उस परियोजना के खिलाफ लड़ाई का आगाज़ किया जिसे गुजरात की जीवन-रेखा माना जाता था।

कपिलाबेन का साक्षात्कार इसलिए भी ज़रूर सुनने लायक है क्योंकि यह एक आदिवासी समुदाय के विस्थापन के दुखद इतिहास और स्वतंत्र भारत में विनाशकारी विकास परियोजनाओं के खिलाफ लड़े गए संघर्षों में से एक प्रमुख आंदोलन में, आदिवासी महिलाओं की भूमिका पर रोशनी डालता है। उनका साक्षात्कार हमें “गुजरात मॉडल” के इस प्रतीक के दूसरे पहलू को समझने में मदद करता है और यह भी दर्शाता है कि बड़े बांधो पर आधारित इस विकास के तहत आदिवासियों के साथ किस तरह का बर्ताव किया गया है।

विडंबना यह है कि आज केवड़िया कॉलोनी एक पर्यटक स्थल बन चुकी है और दुनिया की सबसे ऊँची प्रतिमा के यहां होने कारण, दुनिया भर के आकर्षण का केंद्र भी, लेकिन यह सब जिन आदिवासियों की ज़मीनों पर खड़ा है, उन्हें कभी भी परियोजना प्रभावित परिवार मानकर पुनर्वास नहीं दिया गया। बल्कि उन्हें लगातार अपनी ज़मीनों और प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल किया जा रहा है और अगर वे इसका विरोध करते हैं, तो राज्य के दमन का शिकार बनाया जाता है। लेकिन इस सबके बावजूद लोग पीछे नहीं हटे हैं, और उनका संघर्ष अब भी, 1961 में आदिवासी ज़मीनों के अधिग्रहण के 60 साल बाद भी जारी है।  

साक्षात्कार की अवधी: 2:00:00

भाषा: गुजराती, सबटाइटल्स अंग्रेज़ी में

रुकमणी (काकी) पाटीदार 

डूब प्रभावित गांव: छोटाबड़दा, मध्य प्रदेश

फोटो सौजन्य: नंदिनी ओझा 

महिलाएं नर्मदा बचाओ आंदोलन का मुख्य आधार रही हैं, विशेष रूप से स्थानीय महिलाएं जिन्होंने आंदोलन में कई महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियां उठाई हैं, जिनमें लोगों को आंदोलन से जोड़ना, रैलियों का सामने से नेतृत्व करना, सरकार के नुमाइंदों से बातचीत करना, अनशन करना, जलसंपर्ण जैसे आंदोलन के कार्यकर्मों के लिए गठित समर्पित दाल का हिस्सा बनना आदि शामिल है। इनमें से सबसे असाधारण महिला सदस्य हैं रुकमणी पाटीदार, जिन्हें उनके लोकप्रिय नाम रुकमीकाकी या सिर्फ काकी कहकर भी पुकारा जाता है। खुद विस्थापन का सामना करने वाली काकी, डूब के गांवों से आने वाली पहली ऐसी महिला थी जो न सिर्फ आंदोलन से जुड़ी बल्कि उन्होंने शुरुआती वर्षों से ही अन्य महिलाओं को आंदोलन से जोड़ने का बीड़ा उठाया। रुकमीकाकी जैसे स्थानीय महिला नेताओं के बिना नर्मदा बचाओ आंदोलन में इतने बड़े पैमाने पर महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करना मुश्किल होता, विशेष रूप से निमाड़ में जहाँ पितृसत्तात्मक सोच की जड़ें काफी गहरी हैं और जहां लिंग-आधारित गैर-बराबरी बहुत आम है। 

काकी का साक्षात्कार आंदोलन के संगठनात्मक कार्य, उसके महत्व और संघर्ष में महिलाओं की भागीदारी के ज़रूरी आयाम पर तो रोशनी डालता ही है, इसके साथ-साथ इसमें नर्मदा बचाओ आंदोलन की छत्रछाया में मध्य प्रदेश के निमाड़ क्षेत्र में के एक शक्तिशाली आंदोलन खड़ा करने का इतिहास भी बयां किया गया है। इस साक्षात्कार में, प्रभावित लोगों के लंबे संघर्ष, पुनर्वास निति में ज़मीन  के बदले  ज़मीन दिए जाने का प्रावधान होने के बावजूद कई लोगों द्वारा नगद मुआवज़ा स्वीकार किये जाने के पीछे के कारणों, आंदोलन की विभिन्न रणनीतियों के प्रभावों और सबसे ज़रूरी, नर्मदा बचाओ आंदोलन की एक स्थानीय महिला कार्यकर्ता के जीवन का विस्तृत वर्णन मिलता है।

रुकमीकाकी का साक्षात्कार इन मुद्दों पर और नर्मदा बचाओ आंदोलन की अन्य बारीकियों पर रोशनी डालता है और इसके अलावा, वे इसमें आंदोलन की अनशन और जल समर्पण जैसे रणनीतियों पर अपने विचार भी साझा करती हैं।

साक्षात्कार की अवधी: 2:20:00

भाषा: हिंदी, सबटाइटल्स अंग्रेज़ी में

गीता वसावे

डूब प्रभावित गांव निमगव्हाण, महाराष्ट्र 

फोटो सौजन्य: नंदिनी ओझा 

सरदार सरोवर परियोजना की डूब से प्रभावित होने वाले गांवों की महिलाओं की बांध के खिलाफ संघर्ष में प्रमुख भूमिका रही है। इसमें विशेष रूप से, जलमग्न होने वाले, विस्थापित किए गए और कई पुनर्वास स्थलों में बिखरे हुए महाराष्ट्र के आदिवासी गांवों की महिलाओं के संघर्ष को समझने ने के लिए उन्हें गहराई से सुना जाना ज़रूरी है। इनमें से एक बहुत ही ओजस्वी लड़की, गीता वसावे, छोटी उम्र में बांध के और अपने गांव के डूबने के बारे में सुनने से लेकर बड़े होने पर इसके खिलाफ संघर्ष में भाग लेने के अपने अनुभव बयां करती हैं। इस साक्षात्कार में वे बताती हैं कि वे कक्षा 12 तक पढ़ने वाली अपने समुदाय की पहली लड़की थी और वे किस तरह अपने क्षेत्र की पहली महिला सरपंचा और संघर्ष की अग्रणी नेता बनी। विस्थापित किए जाने और सिर्फ जन्म प्रमाण पत्र या पहचान पत्र न होने के कारण, पुनर्वास और सरकारी नीतियों से वंचित किए जाने के कारण, युवा आदिवासियों के लिए पैदा होने वाली चुनौतियों को भी इस साक्षात्कार में विस्तार से समझाया गया है। नर्मदा के किनारे से सरदार सरोवर परियोजना द्वारा बेरहमी से विस्थापित की गई आदिवासी लड़कियों और महिलाओं के व्यक्तिगत और सामूहिक संघर्ष को समझने में रूचि रखने वाले लोगों को इस साक्षात्कार को ज़रूर सुनना चाहिए।   

साक्षात्कार की अवधी: 1:08:00

भाषा: मराठी, अंग्रेजी में सबटाइटल्स के साथ

भगवती (भाभी) पाटीदार

डूब प्रभावित गाँव कुंडिया, मध्य प्रदेश

फोटो सौजन्य: नंदिनी ओझा 

मध्य प्रदेश के निमाड़ क्षेत्र की महिलाओं के लिए नर्मदा बचाओ आंदोलन को लगातार समर्थन दे पाना आसान नहीं था क्योंकि इस क्षेत्र में पितृसत्ता की जड़ें बहुत गहरी हैं। इसे आंदोलन के शुरुआती दिनों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था। लेकिन आंदोलन का ऐसा शायद ही कोई कार्यक्रम होगा जिसमें भगवती – जिन्हें हम प्यार से भाभी कहते हैं – मौजूद न हों। उनकी शांत लेकिन अडिग उपस्थिति महिलाओं में आत्मविश्वास पैदा करती थी, चाहे वे युवा महिलाएं हों या वरिष्ठ महिलाएं, और उन्हें आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने के प्रति तत्पर करती थी। भाभी के पूरे परिवार ने, उनके माता-पिता के परिवार और उनके ससुराल के परिवार, दोनों ने, आंदोलन में असाधारण भूमिका निभाई है। लंबे समय तक, कुंडिया का उनका घर, आंदोलन का कार्यालय का एक भाग ही हुआ करता था और आंदोलन के कार्यकर्ताओं तथा समर्थकों के ठहरने की जगह भी, जहाँ सभी का खुले मन से स्वागत किया जाता था, चाहे साल का कोई भी दिन हो और दिन का कोई भी समय। उनके घर पर आंदोलन के कार्यकर्ताओं और समर्थकों का तांता लगा रहता था, जिन्हें न सिर्फ पाँव फ़ैलाने की जगह मिलती थी, बल्कि भाभी और उनकी देवरानी-जिठानी द्वारा बनाए गए स्वादिष्ट भोजन का आनंद भी। और जब दिल्ली, भोपाल, मुंबई जैसे सत्ता के केंद्रों में आंदोलन द्वारा धरना दिया जाता था, तो भाभी सभी कार्यकर्ताओं के लिए घर से ज़ायकेदार खाना बांध कर लाती थी, जिससे कई दिनों तक गुज़ारा होता था। भाभी का यही प्यार और संवेदनशीलता, दमन और टकराव भरे माहौल में भी आंदोलन के समर्थकों और कार्यकर्ताओं के बीच अपनापन पैदा करती थी।

भगवती भाभी के पति, महेशभाई ने मध्य प्रदेश के डूब प्रभावित गाँवों में आंदोलन खड़ा करने और उसे एक मजबूत ढांचा देने में बेजोड़ भूमिका निभाई है। महेशभाई एक कुशल संगठनकर्ता और वक्ता होने के साथ-साथ विस्थापितों और आंदोलन के समर्थकों के बीच लोकप्रिय भी रहे। भगवती भाभी के भाई, मोहनभाई पाटीदार और उनका परिवार की भी आंदोलन में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। और आगे चल कर, भाभी की बेटियों ने भी आंदोलन में सक्रिय भूमिका अदा की। ऐसे परिवारों से आने वाली भगवती भाभी ने आज भी आंदोलन को जोड़ कर रखा है।    

साक्षात्कार की अवधी: 0:52:46

भाषा: हिंदी, सबटाइटल्स अंग्रेज़ी में