नर्मदा आंदोलन

पिछले पांच दशकों के दौरान सरदार सरोवर परियोजना नर्मदा घाटी के लोगों द्वारा तीव्र विरोध का केंद्र रही है, जो 1961 में परियोजना की नींव रखे जाने के साथ ही शुरू हो गया था। नर्मदा घाटी में प्रतिरोध आंदोलनों के एक लंबे सिलसिले ने अंत में शक्तिशाली जन आंदोलन का रूप लिया जो आज नर्मदा बचाओ आंदोलन से जाना जाता है।

The Narmada Struggle
फोटो सौजन्य: आशीष कोठरी

हालांकि नर्मदा बचाओ आंदोलन ने शुरुआत प्रभावितों के विस्थापन और पुनर्वास के प्रश्नों से की थी, लेकिन आगे जाकर आंदोलन ने कई व्यापक मुद्दों को उठाया और अंत में, आंदोलन ने विकास के उस मॉडल को भी चुनौती दी जिसके गर्भ से सरदार सरोवर परियोजना निकली थी।

आंदोलन ने परियोजना से पर्यावरण पर होने वाले प्रभावों के मुद्दे, डूब से प्रभावित होने वाले लोगों के अलावा, परियोजना से प्रभावित होने वाले अन्य लोगों के मुद्दे को उठाया, परियोजना की वित्तीय लागत, लाभ-अनुपात, समता के मुद्दे, के साथ यह सवाल कि इन परियोजनाओं से असल फायदा किसका होगा। गुजरात के कई सूखाग्रस्त इलाकों को परियोजना से बाहर रखा जाना जबकि इन्ही के आधार पर परियोजना को जायज़ बताया जा रहा था। और सबसे महत्वपूर्ण कि ऐसे कई विकल्प मौजूद हैं जिनसे यही लाभ कहीं कम विपरीत परिणामों के साथ हासिल किये जा सकते हैं और निर्णय लेने की प्रक्रिया में इन विकल्पों पर ध्यान नहीं दिया गया था। नर्मदा बचाओ आंदोलन ने सभी निर्णयों में प्रभावित लोगों की भागीदारी और परियोजना के सभी आयामों में पारदर्शिता की माँग को भी उठाया।

नर्मदा बचाओ आंदोलन तीनों राज्यों के प्रभावित क्षेत्रों में सक्रिय है और हज़ारों लोग इससे जुड़े हैं। इसके अलावा, आंदोलन को समर्थन देने वाला एक बड़ा नेटवर्क भी है जो पूरे देश में और दुनिया के कई कोनों में फैला हुआ है। नर्मदा बचाओ आंदोलन, सरदार सरोवर से प्रभावित इलाकों से लेकर अन्य बांधों से प्रभावित क्षेत्रों तक, पूरी नर्मदा घाटी में फैला हुआ है। 

नर्मदा घाटी के लोगों के प्रतिरोध और ऐसे ही अन्य संघर्षों ने देश में विकास-पर्यावरण से जुड़े विमर्श में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। कई ऐसे विचार जो आज चर्चा के केन्‍द्र में हैं, जैसे सूचना का अधिकार, प्रभावितों की सहमति और भागीदारी, पर्यावरणीय प्रवाह, आदि जन आंदोलनो  की वास्तविकता से निकले हैं। कई दशकों से चले आ रहे इस आंदोलन ने कई अनूठी रणनीतियों को अपनाया है, जो दर्शाता है कि किस तरह एक सशक्त जन आंदोलन गहरी जड़ें जमाये बैठे प्रभुत्वशाली स्वार्थों से लोहा लेने वाली मजबूत शक्ति बन सकता है।