आरंभिक इतिहास

सरदार सरोवर परियोजना के खिलाफ नर्मदा घाटी में खड़े हुए संघर्ष के आरंभिक इतिहास को यहां संघर्ष से जुड़े 11 वरिष्ठ सदस्यों के साक्षात्कारों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। इन लोगों की सूची और उनके साक्षात्कारों के लिंक नीचे दिए गए हैं। इस सूची के बाद, 1961 से लेकर 1980 के दशक में नर्मदा बचाओ आंदोलन की स्थापना तक की जिन मुख्य घटनाओं का इन साक्षात्कारों में उल्लेख किया गया है, उनके क्रम को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किया गया है। नर्मदा संघर्ष के इस आरंभिक इतिहास के सारांश को यहां पढ़ा जा सकता है। 

लोगों की सूची और उनके साक्षात्कारों के लिंक नीचे दिए गए हैं।

मूलजीभाई तड़वी 

ग्राम केवड़िया, केवड़िया कॉलोनी, गुजरात

Muljibhai Tadvi
फोटो सौजन्य: नंदिनी ओझा

गुजरात की केवड़िया कॉलोनी के पास स्थित नवागाम ग्राम में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा 1961 में नवागाम बांध (बाद में सरदार सरोवर के नाम से जाने जाने वाला) के शिलान्यास के गवाह, मूलजी भाई। परियोजना की आवासीय कॉलोनी के लिए 1961 में किये गए भूमि अधिग्रहण, उसके खिलाफ संघर्ष और केवड़िया कॉलोनी से हुए आदिवासी समुदाय के विस्थापन से जुड़े कई अन्य विषयों के बारे में साक्षात्कार में चर्चा हैं।  केवड़िया कॉलोनी जो आज विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा, स्टैचू ऑफ यूनिटी के लिए मशहूर हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि केवड़िया कॉलोनी से प्रभावित लोग न्याय के लिए आज भी लड़ रहें हैं जब यह २०२१ में लिखा जा रहा है क्योंकि एसएसपी के लिए अधिग्रहीत की गई उनकी जमीनों को स्टैच्यू ऑफ यूनिटी से संबंधित पर्यटन के लिए उपयोग किया जा रहा है । इसलिए एक वरिष्ठ कार्यकर्ता और लेखक राहुल बनर्जी ने सही कहा है कि, “केवडिया के लोग संभवतः उन सभी लोगों में से सबसे बहादुर थे जिन्होंने एसएसपी के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी।“

साक्षात्कार की अवधी: 00:34:24

भाषा: मूल आवाज़ गुजराती में, सबटाइटल्स अंग्रेजी में  

दलसुखभाई तड़वी 

ग्राम गोरा, केवड़िया कॉलोनी, गुजरात

Dalsukhbhai Tadvi
फोटो सौजन्य: नंदिनी ओझा 

1961 में जब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा नवागाम बांध (बाद में सरदार सरोवर बांध) की आधारशिला रखी गई थी, तब दलसुखभाई एक युवक थे। केवड़िया कॉलोनी से प्रभावित लोगों के उस वक़्त शुरू हुए संघर्ष से लेकर नर्मदा बचाओ आंदोलन की स्थापना तक के इतिहास का इस साक्षात्कार में वर्णन हैं। केवड़िया कॉलोनी जो सरदार सरोवर के लिए आदिवासी समुदाय की ज़मीनों पर बनी, वह आज विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा- स्टैचू ऑफ यूनिटी के लिए मशहूर हैं।

साक्षात्कार की अवधी: OO:15:00

भाषा: मूल आवाज़ गुजराती में, सबटाइटल्स अंग्रेजी में  

पारसमल कर्णावत

डूब प्रभावितगांव, निसरपुर, मध्य प्रदेश 

Parasmal Karnavat
फोटो सौजन्य: नंदिनी ओझा

नर्मदा जल विवाद ट्रिब्यूनल के 1979 के निर्णय के बाद निमाड़ क्षेत्र में उभरे निमाड़ बचाओ आंदोलन के अग्रणी सदस्य। वह साक्षात्कार में इस सशक्त आंदोलन के उभार और पतन का इतिहास बताते हैं और इसके बाद नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति की स्थापना के बारे में चर्चा करते हैं, जिसके पारसमल (जी) संस्थापक थे। 

साक्षात्कार की अवधी: 1:22:11

भाषा: मूल आवाज़ हिंदी में, सबटाइटल्स अंग्रेजी में  

प्रभाकर मांडलिक 

नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति, इंदौर, मध्य प्रदेश 

Prabhakar Mandlik
फोटो सौजन्य: नंदिनी ओझा

वरिष्ठ गांधीवादी और मध्य प्रदेश में नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति के संस्थापक सदस्य। वह 1970 के दशक और 1980 के दशक के शुरुआती वर्षों में नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति द्वारा किये गए कार्य का विस्तार से वर्णन करते हैं।

साक्षात्कार की अवधी: 0:32:12

भाषा: मूल आवाज़ हिंदी में, सबटाइटल्स अंग्रेजी में

काशीराम (काका) मारु 

बडवानी, मध्य प्रदेश 

Kashiram Maru
फोटो सौजन्य: नंदिनी ओझा

सरदार सरोवर बांध की डूब से प्रभावित मध्य प्रदेश के निमाड़ के एक गांव एकलरा के एक किसान जो नर्मदा बचाओ आंदोलन के अग्रणी सदस्यों में से एक हैं। उनका साक्षात्कार 1970 के दशक में निमाड़ बचाओ आंदोलन के उभार और उसके इर्द-गिर्द की राजनीतिक घटनाओं को समझने में हमारी मदद करता है।

साक्षात्कार की अवधी: 00:30:45

भाषा: मूल आवाज़ हिंदी में, सबटाइटल्स अंग्रेजी में  

अनिल त्रिवेदी 

वरिष्ठ वकील, इंदौर, मध्य प्रदेश

Anil Trivedi
फोटो सौजन्य: नंदिनी ओझा

अनिल त्रिवेदी, जिन्हें अनिलभाई के नाम से जाना जाता है, एक सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता रहे हैं, जो मध्य प्रदेश में कई आंदोलनों और अभियानों से जुड़े हैं, और नर्मदा बचाओ आंदोलन के समर्थन समूह का हिस्सा हैं। अनिलभाई के पिता स्वर्गीय काशीनाथजी त्रिवेदी एक गांधीवादी और एक स्वतंत्रता सेनानी थे, जो नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। अनिलभाई मध्य प्रदेश में शुरुआती राजनीति और बांधों के मुद्दे तथा निमाड़ बचाओ आंदोलन और नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति के बारे में बात करते हैं।

साक्षात्कार की अवधी: 1:27:41

भाषा: मूल आवाज़ हिंदी में, सबटाइटल्स अंग्रेजी में  

आशीष कोठारी

कल्पवृक्ष पर्यावरण कार्य समूह, पुणे, महाराष्ट्र 

Ashish Kothari
फोटो सौजन्य: नंदिनी ओझा

आशीष कोठारी देश के प्रमुख पर्यावरणविदों में से एक हैं। उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ 1980 के दशक की शुरुआत में नर्मदा घाटी में बांधों के मुद्दे पर नर्मदा नदी के किनारे एक पदयात्रा का आयोजन और नेतृत्व किया था। वह 1980 के दशक की शुरुआत में नर्मदा पर बन रहे बांधों से जुड़े पर्यावरण के मुद्दों की शुरुआत, उस समय के महत्वपूर्ण सदस्यों और नर्मदा बचाओ आंदोलन के उभार को समझने में हमारी मदद करते हैं।

साक्षात्कार की अवधी: 0:50:59

भाषा: मूल आवाज़ अंग्रेजी में, सबटाइटल्स हिंदी में 

डॉ. वसुधा धागमवार

मल्टीपल एक्शन रिसर्च ग्रुप (मार्ग), नई दिल्ली

Vasudha Dhangamwar
फोटो सौजन्य: नंदिनी ओझा

डॉ. वसुधा धागमवार, एक वकील, विद्वान, शोधकर्ता, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता, घाटी के बाहर से आकर 1970 के दशक के अंतिम वर्षों और 1980 के दशक के आरंभिक वर्षों में भूमि अधिकार और सरदार सरोवर परियोजना से होने वाले विस्थापन के मुद्दों पर महाराष्ट्र के अक्राणी और अक्कलकुवा के दूर-दराज़ के आदिवासी इलाकों में जाकर काम करने वाले शुरुआती लोगों में से एक थी। वह अस्सी के दशक की शुरुआत में सरदार सरोवर परियोजना से प्रभावित होने वाले इलाके और इसमें बसने वाले लोगों, इस कार्य में उनकी तथा मार्ग एवं उस क्षेत्र में सक्रिय अन्य संगठनों की भूमिका की बात करती हैं।

साक्षात्कार की अवधी: 1:08:50

भाषा: मूल आवाज़ अंग्रेजी में, सबटाइटल्स हिंदी में  

अशोक श्रीमाली 

सेंटर फॉर सोशल नॉलेज एंड एक्शन (सेतु), अहमदाबाद, गुजरात 

Ashok Shrimali
फोटो सौजन्य: नंदिनी ओझा 

अशोक श्रीमाली, सेतु के वरिष्ठ सदस्यों में से एक और गुजरात के एक प्रमुख सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता तथा माइंस, मिनरल्स और पीपल्स नाम की संस्था के महासचिव भी हैं। वह 1980 के दशक के मध्य में महाराष्ट्र के डूब-प्रभावित गांवों में नर्मदा धरणग्रस्त समिति के गठन और सरदार सरोवर परियोजना से हुए विस्थापन के मुद्दे को स्थानीय स्तर से अंतरराष्ट्रीय स्तर तक ले जाने में सेतु की भूमिका के बारे में बात करते हैं।

Interview duration: 1:17:00

Language: मूल आवाज़ गुजराती में, सबटाइटल्स अंग्रेजी में  

राहुल बेनर्जी

खेडुत मजदूर चेतना संगठन, इंदौर, मध्य प्रदेश

Rahul Banerjee
फोटो सौजन्य: नंदिनी ओझा

राहुल बेनर्जी, आईआईटी खड़गपुर के एक इंजीनियर, एक वरिष्ठ कार्यकर्ता और एक लेखक हैं, जो अपने साक्षात्कार में अस्सी के दशक की शुरुआत में मध्य प्रदेश में अलीराजपुर के अनुसूचित जनजाति क्षेत्रों में खेडुत मजदूर चेतना संगठन के गठन, आदिवासी अधिकारों के लिए खेडुत मजदूर चेतना संगठन द्वारा किये गए संघर्ष और इसके बाद सरदार सरोवर परियोजना के खिलाफ संघर्ष में उनकी भागीदारी के बारे में बात करते हैं।

साक्षात्कार की अवधी: 1:39:48

भाषा: मूल आवाज़ हिंदी और अंग्रेजी में, सबटाइटल्स हिंदी में  

नरसिंहभाई सोनी / सोनीबेन तड़वी

कोठी, केवड़िया कॉलोनी से प्रभावित गाँव   

फोटो सौजन्य: नंदिनी ओझा

नरसिंहभाई और सोनीबेन कोठी गाँव के आदिवासी निवासी हैं। कोठी उन छह गाँवों में से एक है जिनकी जमीनों को सरदार सरोवर परियोजना की वर्ष 1961 में नींव रखे जाने के बाद, परियोजना की आवासीय कॉलोनी – केवड़िया कॉलोनी – के लिए अधिगृहित किया गया था। तब तक नर्मदा नदी के किनारे टिकाऊ जीवन शैली के साथ शांतिपूर्ण रूप से जीवन व्यतीत करने वाले आदिवासियों की ज़मीनों पर बड़े-बड़े गोदाम, भंडार गृह, पार्किंग स्थल, कर्मचारियों के घर, अधिकारीयों के बंगले और अन्य संबंधित सुविधाओं का निर्माण किया गया। बांध और अन्य निर्माण कार्य की वजह से आदिवासियों के जीवन में जो बदलाव हुए उनके बारे में उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था। यह साक्षात्कार उजागर करता है कि किस तरह एक विशाल बांध की आवासीय कॉलोनी के लिए अपनी ज़मीनें खो देने पर आदिवासियों से न सिर्फ उनका रोज़गार छिन गया बल्कि उनकी गरिमा और वो जीवन शैली भी जिसका पालन गुजरता के (आज के) नर्मदा जिले के आदिवासी सदियों से करते आए थे। इन छह गाँवों के आदिवासी आज भी गहरे सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक अभाव का जीवन जी रहे हैं क्योंकि सरदार सरोवर परियोजना के पूरा होने के बाद उनकी ज़मीनों को अब दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा – स्टेचू ऑफ़ यूनिटी (एकता की मूर्ती) – के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।

यह साक्षात्कार बताता है कि किस तरह इन छह गाँवों के आदिवासियों को अपनी ज़मीनों और आजीविका से विस्थापित किया गया, कैसे उनके पीने के पानी के स्रोत को परियोजना की आवासीय कॉलोनी से छोड़े जाने वाले नाली के पानी से दूषित किया गया, कैसे उन्होंने अपना संघर्ष जारी रखा और तब से अब तक उनके जीवन में क्या-क्या परिवर्तन आए हैं।

साक्षात्कार की अवधी: 0:49:47

भाषा: गुजराती, अंग्रेजी में सबटाइटल्स के साथ

स्वर्गीय गंगाराम (बाबा) यादव

डूब-प्रभावित गांव छोटाबड़ादा, मध्य प्रदेश

फोटो सौजन्य: नंदिनी ओझा

गंगारामबाबा ने 1970 के दशक में मध्य प्रदेश के निमाड़ बचाओ आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया था। इस आंदोलन की मांग थी कि सरदार सरोवर बांध, जिसे उस समय नवागाम बांध कहा जाता था, उसकी ऊंचाई को घटाया जाए। गंगारामबाबा नर्मदा बचाओ आंदोलन के भी प्रमुख सदस्यों में से थे जिन्होंने 1990 के दशक में आंदोलन के गढ़ के रूप में उभरने वाले मणिबेली में स्थित, नर्मदाई के नाम से जाने जाने वाले आंदोलन के मुख्य केंद्र और कार्यालय के कामकाज की ज़िम्मेदारी संभाली थी। सरदार सरोवर बांध में डूबने वाले महाराष्ट्र के पहले गांव, मणिबेली में लड़ा गया संघर्ष अपने आप में बेजोड़ था। इस संघर्ष में भाग लेने वाले और इस मुश्किल समय में कई वर्षों तक मणिबेली की ज़िम्मेदारी संभालने वाले गंगारामबाबा अपने साक्षात्कार में इस चुनौतीपूर्ण संघर्ष की कहानी बयां करते हैं। उनका यह साक्षात्कार 1970 के दशक के शुरुआती वर्षों में निमाड़ बचाओ आंदोलन की असफलता के लोगों पर हुए प्रभाव पर और नर्मदा बचाओ आंदोलन के शुरुआती वर्षों के इतिहास और मणिबेली में हुए आंदोलन के शुरुआती संघर्ष पर रोशनी डालता है।          

साक्षात्कार की अवधी: 1:14:00

भाषा: हिंदी, अंग्रेजी में सबटाइटल के साथ

 

नर्मदा संघर्ष के आरंभिक इतिहास और विकास का सारांश

सरदार सरोवर परियोजना से होने वाले विस्थापन के खिलाफ नर्मदा घाटी के लोगों द्वारा सबसे पहला प्रतिरोध वर्ष 1961 में पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा बांध की आधारशिला रखी जाने के साथ ही शुरू हो गया था। उसी समय छह आदिवासी गांवों की भूमि को एक हेलीपैड और परियोजना कॉलोनी (केवड़िया कॉलोनी) के निर्माण के लिए अधिग्रहित किया गया था जिसका आदिवासियों ने विरोध किया था।

बाद में जब मध्य प्रदेश (मप्र), गुजरात और महाराष्ट्र के तटीय राज्यों के बीच बांध की ऊंचाई और नर्मदा के पानी के बंटवारे को लेकर विवाद हुआ, तो 1969 में विवाद को सुलझाने के लिए नर्मदा जल विवाद ट्रिब्यूनल की स्थापना की गई। दस साल बाद, 1979 में जब इस ट्रिब्यूनल ने अपना फैसला दिया तो सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई घटाने की मांग को लेकर मध्य प्रदेश में स्वतः रूप से एक शक्तिशाली आंदोलन – निमाड़ बचाओ आंदोलन- खड़ा हुआ। हालांकि यह संघर्ष काफी तीव्र था लेकिन कुछ ही समय बाद यह निष्क्रिय हो गया। इसी समय के आसपास, कुछ अनुभवी गांधीवादियों और स्थानीय नेताओं ने मध्य प्रदेश में नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति (NGNS) का गठन किया, जिसने मध्य प्रदेश में नर्मदा पर बन रहे बड़े बांधों पर सवाल उठाने के साथ-साथ इस मुद्दे पर लोगों को एकजुट करना शुरू किया। नवनिर्माण समिति मध्य प्रदेश में नर्मदा पर बांधों पर व्यापक रूप से सवाल उठाना शुरू करने वाले संगठनों में से एक थी। समिति की लोगों को एकजुट करने की गतिविधियां मुख्य रूप से मध्य प्रदेश के निमाड़ क्षेत्र (मैदानों) तक सीमित थी, लेकिन एक और संगठन, खेडुत मजदूर चेतना संगठन (KMCS), मध्य प्रदेश के अलीराजपुर तहसील के आदिवासी गांवों में सक्रिय था और वहां आदिवासियों और वन अधिकारों के मुद्दों पर काम कर रहा था। खेडुत मजदूर चेतना संगठन ने ही बाद में चलकर नर्मदा के तट पर बसे अलीराजपुर के जलमग्न गांवों में आदिवासी लोगों के विस्थापन का मुद्दा उठाया।

अस्सी के दशक की शुरुआत तक गुजरात और महाराष्ट्र में भी लोगों ने सरदार सरोवर के कारण विस्थापन और पुनर्वास के बारे में चिंता व्यक्त करना शुरू कर दिया था। इसमें आर्च-वाहिनी, राजपीपला सोशल सर्विस सोसाइटी, मल्टीपल एक्शन रिसर्च ग्रुप (मार्ग), आदि जैसे समूह और संगठन शामिल थे। और बाद में, सेंटर फॉर नॉलेज एंड सोशल एक्शन (सेतु) आदि जैसे संगठन भी सरदार सरोवर और विस्थापन के मुद्दे में सक्रिय रूप से शामिल हो गए।

अस्सी के दशक की शुरुआत में ही कल्पवृक्ष और हिंदू कॉलेज नेचर क्लब के सदस्यों ने नर्मदा घाटी में बड़े बांधों के पर्यावरणीय प्रभावों का अध्ययन करने के लिए नदी के किनारे-किनारे एक पदयात्रा का आयोजन किया। 

इस अवधि के दौरान इन सभी समूहों ने नर्मदा घाटी में सरदार सरोवर से जुड़े मुद्दों को उठाने और परियोजना के खिलाफ एक जन आंदोलन के उभार और विकास में अलग-अलग लेकिन महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

महाराष्ट्र के प्रभावित लोगों के संगठन, नर्मदा धरणग्रस्त समिति (NDS) का गठन अस्सी के दशक के मध्य में किया गया था। अस्सी के दशक के मध्य में ही, NDS, NGNS और KMCS के इर्द-गिर्द एकजुट होकर, प्रभावित गांवों के लोगों का एक बेहतर रूप से संगठित, समन्वित और व्यवस्थित संगठन अस्तित्व में आया और धीरे-धीरे यह संगठन इन तीनों तटीय राज्यों के जलमग्न और प्रभावित गांवों में फैलता चला गया।

तीनों राज्यों के प्रभावित लोगों का यह संयुक्त संगठन, उन्हें समर्थन देने वाला एक व्यापक नेटवर्क और उनका संघर्ष अस्सी के दशक के उत्तरार्ध से लोकप्रिय रूप से नर्मदा बचाओ आंदोलन के नाम से जाना जाने लगा।

सरदार सरोवर परियोजना के खिलाफ यह शक्तिशाली जन प्रतिरोध, नर्मदा बचाओ आंदोलन, पिछले तीन दशकों से भी अधिक समय से जारी है।