गुजरात के डूब-प्रभावित गाँव: मोखड़ी और वड़गाम
पुनर्वास स्थल: सावली और धरमपुरी
अगर आप मुझसे ऐसे एक साक्षात्कार के बारे में पूछें जो भारत के आदिवासी समुदायों के लिए विकास परियोजनाओं के मायनों को समझने के लिए सबसे ज़रूरी हो, तो मैं आपको गुजरात में सरदार सरोवर परियोजना द्वारा विस्थापित किए गए तीन आदिवासी नेताओं के इस सामूहिक साक्षात्कार को सुनाने का सुझाव दूंगी। इन नेताओं में से एक, (स्वर्गीय) कांति रुमल ने जिस मार्मिक अंदाज़ में विस्थापन की अपनी पीड़ा और अन्याय को बयां किया है वैसा किसी और ने नहीं किया है। जिन गांवों में बांध की नींव डाली गई थी उनमें से सबसे पहला गाँव और नींव डालने के लिए किए गए विस्फोटों का सबसे ज़्यादा ख़मयाज़ा भुगतने वाले गाँव, मोखड़ी के निवासी होने के कारण कांतिभाई ने यह सब कुछ अपनी आँखों से देखा। जब वर्ष 1961 में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू बाँध का शिलान्यास करने आए तो कांतिभाई वहीं मौजूद थे। जिस सरदार सरोवर परियोजना को बाद में गुजरात की जीवन-रेखा कहा गया, उसकी मोखड़ी के आदिवासी निवासियों को जो कीमत चुकानी पड़ी, उसका ब्यौरा कांतिभाई के इस साक्षात्कार में मिलता है। जैसा कि कांतिभाई बताते हैं, विस्फोट शुरू होने की चेतावनी देने वाले साइरन की आवाज़ सुनते ही मोखड़ी के निवासी “विस्फोट से घरों पर होने वाली पत्थरों की बारिश से बचने के लिए…” तीतर-बितर हो जाते थे और नदी-नालों में कूद जाते थे या पहाड़ों पर चढ़ जाते थे।
“अगर कोई इस बाँध की सच्चाई जानता है, यह बाँध कैसे बना और क्या हुआ, तो इसका जवाब मैं दे सकता हूँ। जिस तरह से बाँध से प्रभावित होने वाले लोगों को फर्जी वादे किए गए, उसी तरह यह बाँध भी फर्जी तरीके से बनाया गया,” (स्वर्गीय) कांति रुमल, 1980 में सरदार सरोवर बांध के लिए अपनी पैतृक भूमि और जंगलों से विस्थापित होने वाले आदिवासियों के पहले बैचों में से एक।
कांतिभाई ने अपने साक्षात्कार में स्पष्ट किया कि उन्होंने अपनी संपत्ति खो दी है जिसमें न केवल उनकी ज़मीनें बल्कि उनके जंगल और नदी भी शामिल हैं। वह कहते हैं, “जंगल के बिना हम जीवित नहीं रह सकते।” लेकिन उन्हें सरकार द्वारा कभी भी उनकी संपत्ति का मुआवजा नहीं दिया गया। और जब बांध की नींव के लिए विस्फोट शुरू हुआ और बांध स्थल के करीब उनके गांव पर पत्थरों की बारिश हुई तो उन्हें अपने गांव मोखड़ी को खाली करने के लिए मजबूर होना पड़ा।
जो भी यह मानता है कि सरदार सरोवर परियोजना की वजह से गुजरात में खुशहाली आई है, उसे कांतिभाई का साक्षात्कार ज़रूर सुनना चाहिए। इस साक्षात्कार के ज़रिए आप समझ सकेंगे कि इस बाँध की वजह से प्रभावित होने वाले हज़ारों आदिवासियों ने इसकी वजह से क्या त्रासदी झेली है। कांतिभाई का संघर्ष उनके युवा जीवन से ही शुरू हो गया। 1980 के दशक के शुरुआती वर्षों में उनके परिवार को उनके पुश्तैनी गाँव, मोखड़ी से विस्थापित कर दिया गया। उस वक़्त सरकार की कोई उचित पुनर्वास नीति भी नहीं थी। उनका संघर्ष नवंबर 23 को एक दुखद हादसे में हुई उनकी मौत तक जारी रहा। कांतिभाई ने गुजरात विस्थापित संघर्ष समिति और नर्मदा बचाओ आंदोलन में नेतृत्व भूमिका निभाई, लेकिन उससे पहले उन्होंने उचित पुनर्वास के मुद्दे पर गुजरात के जाने-माने गैर-सरकारी संगठन आर्च वाहिनी और आनंद निकेतन आश्रम के साथ भी काम किया।
स्वर्गीय जिकु जेसांग, जो कांतिभाई के ही गाँव से आने वाले आदिवासी नेता थे, वे भी अपने साक्षात्कार में गुजरात की तथाकथित जीवन-रेखा, सरदार सरोवर परियोजना के द्वारा विस्थापित किए गए आदिवासियों की बर्बादी और इसके खिलाफ उनके द्वारा किए गए संघर्ष की पुष्टि करते हैं।
सरदार सरोवर परियोजना से होने वाले विस्थापन के खिलाफ सबसे लंबा और सबसे पुरज़ोर संघर्ष करने वाले गुजरात के इन तीन आदिवासी नेताओं के इस सामूहिक साक्षात्कार में अंतिम आवाज़ है शंकर कागड़ा की। शंकरभाई गुजरात में नर्मदा बचाओ आंदोलन के सबसे वरिष्ठ नेताओं में से हैं और वे खुद भी सरदार सरोवर परियोजना से होने वाले विस्थापन के शिकार हुए हैं। मोखड़ी के सामने स्थित उनके पुश्तैनी गाँव, वड़गाम को भी बाँध की वजह से उजाड़ दिया गया। उनका संघर्ष आज भी जारी है। 1990 के दशक के शुरुआती वर्षों में वड़गाम के डूबने के बाद निवासियों को पूरे पुलिस बंदोबस्त के साथ जबरन वड़गाम से हटाकर धरमपुरी पुनर्वास स्थल में बसाया गया था, जहां वे आज भी रहते हैं। शंकरभाई आज भी सरदार सरोवर परियोजना से विस्थापित होने वाले लोगों के लिए संघर्ष कर रहे हैं और पांच-सितारा पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए बाँध के सामने आदिवासियों की ज़मीनों पर बनाई गई दुनिया की सबसे ऊँची प्रतिमा, स्टेचू ऑफ़ यूनिटी की वजह से अपनी ज़मीनें खोने वाले आदिवासियों के समर्थन में खड़े हैं।
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