कांता मराठे

एकता परिषद, म.प्र.

हम जिन मुद्दों पर काम कर रहे हैं, वे राज्य स्तर की नीतियों के फैसलों के परिणाम हैं – जैसे बड़े बाँध। हम म.प्र. के 30 ज़िलों में, 465 पंचायतों और लगभग 3000 गाँवों में काम करते हैं। सबसे बुनियादी मुद्दा ज़मीन का है। छोटी-छोटी परिवारों की 5–10 एकड़ ज़मीन भी छिन रही है।

छत्तीसगढ़ का इलाका कभी मध्यप्रदेश का अन्नदाता कहलाता था। आज हाल यह है कि लोग बड़े पैमाने पर पलायन करने को मजबूर हैं। वे केवल त्योहारों पर ही लौट पाते हैं, बाक़ी समय उनके घर ताले पड़े रहते हैं। लोग बड़े प्रोजेक्ट्स से प्रभावित हो रहे हैं, लेकिन पिछले 4–5 सालों में हमने देखा कि आदिवासियों को ज़मीन से नेताओं, जातिगत ताक़तों और स्वार्थी तत्वों के कारण भी बेदख़ल किया जा रहा है।

हम एकता परिषद में ज़मीन के सवाल पर काम कर रहे हैं, क्योंकि ज़मीन के मालिक होते हुए भी लोगों के पास उस पर हक़ नहीं है। कारख़ाने बनाने के नाम पर, कभी स्कूल या पंचायत भवन बनाने के नाम पर आदिवासियों को ज़मीन से हटा दिया जाता है। मुख्यमंत्री ने कुछ साल पहले घोषणा की थी कि 1986 से पहले जंगल की ज़मीन पर बसे आदिवासियों को पट्टा मिलेगा। लेकिन यह केवल एक चुनावी घोषणा रही, नीति नहीं बनी।

हकीकत यह है कि आदिवासी और जंगल का रिश्ता पूरी तरह टूटता जा रहा है। पलायन बढ़ रहा है, ज़मीन छिन रही है। अगर आदिवासी अपनी ज़रूरत के लिए लकड़ी काट लें तो सज़ा मिलती है। लेकिन सरकार जब ट्रकों के जरिए उसी जंगल की लकड़ी निकालती है, तब कोई सवाल नहीं उठता।

हम इन मुद्दों पर काम करते हैं, लेकिन मुश्किल यह है कि हर साल समस्या नए रूप ले लेती है। हर घर में यही हाल है। वनीकरण (अफॉरेस्टेशन) के नाम पर जंगल उजाड़े जा रहे हैं, खाइयाँ खोदकर ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया जाता है। यही वजह है कि लोग ज़मीन गँवा रहे हैं और पलायन कर रहे हैं। इटारसी और ग्वालियर में मज़दूरी तक नहीं मिलती। लोग मजबूरी में अपने घर छोड़ रहे हैं।

इसका सबसे बुरा असर महिलाओं, आदिवासियों, ग़रीबों और कमज़ोर वर्गों पर पड़ रहा है। उनकी स्थिति बंधुआ मज़दूरी जैसी हो गई है। महिलाएँ बलात्कार की शिकार होती हैं। बिलासपुर, रायपुर और पिथोराबाद की कई परिवार तो वापस भी नहीं लौट पाए हैं, उनकी कोई ख़बर तक नहीं है। मुख्य वजह यही है – कभी उनके पास ज़मीन थी, अब वे ज़मीनविहीन हो गए हैं।

आदिवासी ज़मीन पर ही निर्भर हैं, वे खेती-बाड़ी जानते हैं। लेकिन अन्य काम आसानी से नहीं कर पाते क्योंकि उनके पास दूसरी कुशलताएँ नहीं हैं। अभयारण्यों और नेशनल पार्कों के कारण भी विस्थापन हो रहा है। मंडला ज़िले का कान्हा राष्ट्रीय उद्यान इसका उदाहरण है – वहाँ से लोगों को उजाड़ दिया गया। अगर वे शिकार करते पकड़े जाते हैं तो कड़ी सज़ा दी जाती है। लेकिन जब बाघ उनके मवेशी मार देता है तो सरकार मुआवज़ा नहीं देती। यही हाल शहडोल के बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान का है। जानवर और अधिकारी – दोनों मिलकर आदिवासियों में डर फैला रहे हैं।

सरकार से सवाल करो तो वही जवाब – “समस्या है तो यहाँ से निकल जाओ।” वहाँ बस पुलिस और लाठी है, इंसाफ नहीं। संजय राष्ट्रीय उद्यान के कारण 53 गाँव उजाड़े जा रहे हैं – कुछ सरगुजा में, कुछ सीधी में। आदिवासी अपने कुल्हाड़ लेकर भी नहीं चल सकते, जो उनकी संस्कृति का हिस्सा है। वे अपने कुत्ते नहीं पाल सकते, मवेशियों को चराने नहीं भेज सकते, बीड़ी तक नहीं पी सकते। जंगल से लघु उत्पाद (minor forest produce) नहीं इकट्ठा कर सकते, जो उनकी रोज़ी-रोटी का साधन था। जो थोड़ा-बहुत मिलता भी है, वह बाज़ार तक पहुँचने से पहले ही बनिए छीन लेते हैं।

बस्तर, रायगढ़ और शहडोल की स्थिति भी यही है। लोग अपनी संपत्ति पर भी नियंत्रण नहीं रख पा रहे हैं। जहाँ-जहाँ राष्ट्रीय उद्यान और अभयारण्य बने हैं, वहीं लोगों पर तरह-तरह की पाबंदियाँ लगाई जा रही हैं।

लोग बड़े प्रोजेक्ट्स और नीतियों से तो प्रभावित हो ही रहे हैं, लेकिन रोज़मर्रा का दमन और तकलीफ़ ने तो उन्हें उनके लंगोट तक से वंचित कर दिया है।