खेडूत मज़दूर चेतना संगठन, आलीराजपुर, झाबुआ (म.प्र.)
झाबुआ में लोगों को बाँध या खदान जैसे विकास कार्यों से सीधे-सीधे विस्थापित नहीं किया जा रहा है। लेकिन विकास के नाम पर की गई नीतिगत ग़लतियों और उपेक्षा ने लोगों की हालत ऐसी कर दी है कि वे गाँवों में जीवित ही नहीं रह सकते। उनके सामने या तो दयनीय स्थिति में जीने या फिर झाबुआ से बाहर के औद्योगिक इलाक़ों में मज़दूरी करने का रास्ता ही बचता है।
झाबुआ को भीलों का गढ़ माना जाता है। यहाँ नाइक जैसी अन्य आदिवासी जातियाँ भी अपने अलग जीवन-ढंग के साथ रहती हैं। कुछ गाँव नर्मदा नदी के किनारे हैं जो सरदार सरोवर बाँध के डूब क्षेत्र में आते हैं। इसके अलावा, हथनी नदी पर एक बाँध बनाने की योजना है जिसमें आदिवासी डूबेंगे लेकिन पानी पाटीदार गाँवों में जाएगा।
क्षेत्र में जंगलों की भी भारी तबाही हुई है। पहले अंग्रेज़ों ने दिल्ली–बॉम्बे रेल लाइन बिछाने के लिए बहुमूल्य सागौन काटा। बाद में गुजरात के उद्योगों की ज़रूरत के लिए नर्मदा किनारे के पेड़ काटे गए। 150 साल पहले इन्हीं लकड़ियों से भरूच में जहाज़ बनाए जाते थे। आज भी लोग इन्हीं जंगलों पर निर्भर हैं, लेकिन सरकार इन्हें “सड़ियल जंगल” कहती है। वन विभाग हर साल यहाँ पेड़ काटने आता है, संसाधन ले जाता है। जब ऐसा होता है तो लोग इसका विरोध करते हैं, क्योंकि बिना जंगल की ज़मीन पर खेती किए उनका जीवन असंभव है। यही असली विस्थापन है — जब आदिवासियों को उनके जंगलों से उजाड़ा जाता है।
झाबुआ के आदिवासी रोज़गार के लिए सूरत, कोटा, नवसारी, इंदौर, दिल्ली और भोपाल तक जाते हैं। इस तरह के प्रवासन का सबसे बड़ा बोझ महिलाओं पर पड़ता है। महिलाएँ कहती हैं कि कड़िया काम (निर्माण मजदूरी) बहुत कठिन होता है, वे इसे 10–12 साल से ज़्यादा नहीं कर सकतीं। बड़ी उम्र की महिलाएँ खेतों में काम करती हैं, जहाँ उन्हें सिर्फ़ 8 रुपये मज़दूरी मिलती है। कई बार ठेकेदार उन्हें बिना मज़दूरी दिए भगा देते हैं। मज़बूरी में उन्हें पैदल छोटे उदयपुर तक लौटना पड़ता है।
पिछले साल जब सूरत में प्लेग का डर फैला, तब सबसे ज़्यादा प्रभावित झाबुआ के आदिवासी हुए क्योंकि वे सबसे गंदे हालातों में रहते थे। लोग वहीं से भागे, अपना सामान और मज़दूरी छोड़कर पैदल गाँव लौटे।
कुछ जगहों (जैसे सोरवा और अंकुट) में औरतें हल तक चलाती दिखाई देती हैं। सबसे बड़ी समस्या यह नहीं है कि महिलाएँ संगठित नहीं हो पा रही हैं। पर हम इस मे निष्फल गए हैं। हम जानते हैं कि नई आर्थिक नीतियों का सबसे बुरा असर गरीबों पर पड़ेगा, और विरोध में भी वही खड़े होंगे।