बसंतीबाई, बर्गीबाँध

बर्गी बाँध विस्थापित संघर्ष समिति मध्य प्रदेश

मैं बर्गी बाँध की समस्याओं के बारे में बोलूँगी। इस बाँध के डूब क्षेत्र में 162 गाँव आते हैं। इन गाँवों (जो 3 ज़िलों में फैले हुए हैं) से लोगों को उखाड़ दिया गया है। आज तक उनके पास जीविका का कोई साधन नहीं है, उन्हें यह भी नहीं पता कि अगला भोजन कहाँ से आएगा। जो सक्षम हैं, वे मछली पकड़ने लगे हैं। बहुत से लोग मज़दूरी के लिए शहरों में चले गए हैं। इनमें से कई आदिवासी हैं। वे भूखे रह लेंगे, लेकिन किसी के घर जाकर भीख नहीं माँगेंगे।

जब वे मज़दूरी के लिए जाते हैं, तो कई लोग मर जाते हैं। वे कुछ पैसा कमाते हैं। जितना हो सके, उतना घर लाकर अपने परिवार चलाते हैं। आदिवासी पुरुष उस कमाई का आधा पैसा दारू पर ख़र्च कर देते हैं। बच्चों का खाना उसी कमाई से आता है।

162 गाँवों में से कुछ को 2-3 बार हटाया गया और आख़िर में जंगलों के किनारे बसाया गया। यहाँ भी पानी भरा रहता है। पानी के कारण उनकी झोपड़ियाँ गिर जाती हैं, वे दोबारा उन्हें खड़ा करते हैं, और वही हाल फिर होता है।

महिलाओं को भी दिक्कतें झेलनी पड़ती हैं। वे भी काम पर जाती हैं। यहाँ खाने को कुछ नहीं है। अगर सुबह खाना मिल जाए तो शाम को नहीं मिलता।

सभी 162 गाँवों की यही हालत है। बच्चों की पढ़ाई नहीं हो सकती। लोगों ने अपने पशु बेच दिए, उनके पास खाने को कुछ नहीं, पहनने को कपड़े नहीं। बहुत मुश्किल है। न स्कूल के शिक्षक हैं, न डॉक्टर । अगर बीमार पड़ जाएँ, तो जाएँ कहाँ? मरला ज़िले में बिजादरी, सिवनी ज़िले में घासू। जबलपुर में वे कॉलोनियों में जाते हैं। कुछ तो अस्पताल जाते या लौटते समय रास्ते में ही मर जाते हैं।

उनके पास न्यूनतम सामान होता है: एक थाली, एक लोटा। डूब से पहले कई लोगों के पास 60-100 एकड़ ज़मीन थी। उनके पास घी-दूध की प्रचुरता थी। आज उनके पास राख तक नहीं है। सरकार विकास के बारे में नहीं सोचती, वह केवल विनाश के बारे में सोचती है। डूब क्षेत्र के लोगों को अपनी जान देनी पड़ती है ताकि सरकार फ़ायदा उठा सके। दलित, आदिवासी और कई अन्य लोग एक ही भाग्य साझा कर रहे हैं।

कुछ लोग मछली पकड़ सकते हैं। कुछ नहीं। वे मज़दूरी करते हैं। बसें मज़दूरी पर जाने वाले लोगों से भरी रहती हैं। वे आस-पास के इलाकों में जाते हैं। उनकी हालत का वर्णन कैसे करें? यह इतनी बुरी है… हमें कोई उम्मीद नहीं दिखती… हमारे पास बस एक बात कहने को है: हमने बुरे दिन देखे हैं। हर घाटी के स्त्री-पुरुष को यह नर्क नहीं झेलना चाहिए। हम इस लड़ाई को आगे बढ़ाएँगे, संघर्ष चलता रहना चाहिए। सरकार हमारी भाषा नहीं समझेगी। वे सोचते हैं कि जो लोग डूबे हैं, वे पीड़ित नहीं हैं। वे हमें बेवकूफ बनाते हैं। वे केवल सरपंचों, नेताओं, दलालों से बात करते हैं — ये सब हमें लूटना चाहते हैं।

हमारे शरीर का हर हिस्सा गहनों से सजा रहता था। हम घी-दूध के बिना नहीं रह सकते थे। हमारे पास अनाज की 36 किस्में थीं। आज कुछ भी नहीं है। जंगल हमारा सहारा थे। डूब का अनुभव होने तक हमने कभी अस्पताल नहीं देखा था, न ही गए थे। हमारी दवाएँ हमारे जंगलों से मिलती थीं। हमारी सारी दवाएँ डूब चुकी हैं। अस्पताल भी नहीं हैं। अगर बीमार पड़ जाएँ तो जाएँ कहाँ? कोई गंभीर बीमारी यानी पक्की मौत। अगर कोई मज़दूरी के लिए बाहर गया हो और बच्चों को बीमारी लग जाए, तो वही अंत है।

शहरों में वे 10-15 रुपये कमाते हैं। ऐसे हालात में वे इतने पैसों में क्या करें? क्या वे खुद और बच्चों को खिलाएँ? या कपड़े और मसाले लें? जंगल के जानवरों को भी डूबे हुए गाँवों के लोगों से ज़्यादा इज़्ज़त मिलती है। नँगा बदन, पैरों में कुछ नहीं।

…बर्गी बाँध के विस्थापितों का पुनर्वास नहीं हुआ है, चाहे सरकार कुछ भी कहे। क्या किया गया है? और क्या सरकार हमें नीतियाँ दिखाएगी? पैसा कहाँ लगाया? सरकार कहती है कि हमने पैसा इसमें लगाया, उसमें लगाया। हमें ऐसे जवाबों से संतुष्ट होने की उम्मीद की जाती है जबकि हमने तो बस जबरन बलिदान ही झेला है।

शहर में नर्मदा मइया नहीं है। सरकार ने आदिवासियों को मूर्ख बनाया है। बाँध बनने के बाद सरकार ने कहा था कि मत जाओ, तुम्हें पुनर्वसित किया जाएगा। हम नहीं गए और जब बाँध में पानी भरना शुरू हुआ, तो सरकार ने कहा, पानी आने दो, लोग चूहों की तरह भाग जाएँगे।

हमें पता नहीं था कि आंदोलन क्या होता है। कोई छोटा पुलिसवाला भी गाँव में आ जाए तो गाँव की औरतें अपने घरों में भाग जाती थीं। हमें सर्वे आदि के बारे में कुछ पता नहीं था। जब शर्मा (B.D. Sharma) जी और मेधा जी (Patkar) यहाँ आए, तो हम उन्हें नहीं जानते थे। हमने सोचा, ये लूटने वाले आए हैं। हाँ, जब राजकुमार भाई (Sinha) आए, तो वे अच्छे खाए-पीए लगे, हमने कहा, तुम्हारे जैसे लोग हमारे इलाके को लूटकर गए हैं, तुम हमारे क्या काम आओगे? मैंने यह बात खुद उनसे मरला ज़िले में कही थी। धीरे-धीरे हमें समझ में आया। और अब हमने कुछ जीतें हासिल की हैं… भले ही बाँध बन चुका है।