औचित्य
विकास से जुड़े विमर्श में महत्वपूर्ण योगदान देने के साथ, नर्मदा घाटी के आंदोलन को आज़ाद भारत के इतिहास के एक अहम जन आंदोलन के रूप में देखा गया है। इसका सबसे अच्छा विवरण प्रोफेसर शिव विश्वनाथन ने इस प्रकार दिया है:
“…मेरे लिए, पिछले दो दशकों की सबसे महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना नर्मदा बांध से जुड़ा संघर्ष रहा है। नर्मदा बांध से जुड़ा यह संघर्ष एक सफर है, एक तीर्थयात्रा है, और 30 वर्षों के प्रतिरोध का चरम बिंदु है। इसके लिए एक अलग तरह की कहानी सुनाने की कला की ज़रुरत है। यह संघर्ष राष्ट्र के आधिकारिक इतिहास को लोगों के सामूहिक इतिहास द्वारा चुनौती देने से जुड़ा है।
-29 मार्च 2016, दी हिन्दू
दुर्भाग्य से, जिस तरह विकास के क्षेत्र में एक खास मॉडल का दबदबा है, उसी तरह इतिहास के विषय में राज्य द्वारा प्रोत्साहित इतिहास का भी दबदबा है, जहां लोगों के इतिहास, उनकी आवाज़ों और उनके प्रतिरोध को जगह नहीं दी जाती है। अक्सर राष्ट्र और विकास के इस प्रभुत्वशाली इतिहास को ही दर्ज किया जाता है और उसे बढ़ावा दिया जाता है। विकास से जुड़े मुख्यधारा के विचारों को चुनौती देने वाले नर्मदा बचाओ आंदोलन जैसे जन आंदोलनों को अगर मुख्यधारा के प्रभुत्वशाली इतिहास में जगह दी भी जाती है तो सिर्फ सतही तौर पर।
खास तौर पर देश भर में विकास परियोजनाओं से विस्थापित होने वाले लोगों की आवाज़ों को इतिहास के पन्नों से बाहर रखा जाता है, क्योंकि अन्य तरह के विस्थापनों के मुकाबले “विकास” परियोजनों के लिए होने वाले विस्थापन को राष्ट्र की प्रगति और हितों से जोड़कर देखा जाता है।
भारत का इतिहास कई प्रकार के मानव निर्मित विस्थापनों का गवाह रहा है। चाहे आज़ादी के वक़्त बंटवारा रहा हो या धर्म, जातीयता आदि के आधार पर समुदायों के बीच में टकराव। इस प्रकार के जबरन विस्थापन को दुखद घटना माना जाता है, और इनका शिकार होने वाले लोगों पर होने वाले प्रभाव का संज्ञान लिया जाता है, जबकि विकास परियोजनाओं से होने वाले विस्थापन को ज़रूरी और वैध माना जाता है। इसके अलावा, जबकि अन्य प्रकार के विस्थापन से प्रभावित लोगों को भविष्य में किसी दिन अपने घरों और ज़मीनो पर वापस लौटने की उम्मींद रहती है, विकास परियोजनाओं से होने वाला विस्थापन स्थायी होता है, और बेघर होने वाले लोगों की अपने घरों और ज़मीनों पर वापस आने की कोई संभावना नहीं होती। ऐसा इसलिए है क्योंकि बांधों, खदानों और अन्य प्रकार की परियोजनाओं के आने से भूमि, गाँव, कस्बे, जंगल, नदियाँ, धाराएं, पहाड़ियां, झरने, ऐतिहासिक और धार्मिक स्थल स्थायी रूप से नष्ट हो जाते हैं।
और विकास परियोजनाओं के शिकार होने वाले लोगों को नज़रअंदाज़ और उनकी आवाजों को अनसुना कर दिया जाता है क्योंकि उनके विस्थापन को देश की प्रगति के लिए आवश्यक माना जाता है।
लेकिन, हाल में विकास परियोजनाओं के लोगों और पर्यावरण पर होने वाले प्रभाव को जानने और उसका अध्ययन करने तथा इन परियोजनाओं के खिलाफ जन आंदोलनों के अध्ययन को लेकर भी रुचि बढ़ती जा रही है। लेकिन विकास के प्रभुत्वशाली मॉडल को चुनौती देने वाले जन आंदोलनों के अध्ययन के इन प्रयासों में भी प्रभावित लोग सवालों के जवाब देने वाले, अध्ययन के विषय या अध्ययन के सैंपल से ज़्यादा कोई और भूमिका नहीं निभाते हैं। इतिहास गढ़ने वाले लोगों को इतिहास दर्ज करने की प्रक्रिया में कोई जगह नहीं दी जाती है। जब आंदोलन द्वारा भी खुद अपना इतिहास लिखा जाता है, तो एक बड़ा जन आंदोलन होने के बावजूद, उसमें अक्सर मुद्दों, महत्त्वपूर्ण कार्यवाहियों और कार्यक्रमों या कुछ जाने-माने लोगों के योगदान पर ही ज़ोर दिया जाता है।
नर्मदा आंदोलन एक बड़ा जन आंदोलन रहा है और सैंकड़ों लोग इससे जुड़े रहे हैं, जो इस आंदोलन की बुनियादी ताकत साबित हुआ है। लेकिन इस आंदोलन में आम लोगों की भूमिका उस तरह से सार्वजनिक रूप से उभर कर नहीं आयी है जिस तरह आनी चाहिए, और साधारण लोगों के असाधारण योगदान, प्रभावित समुदायों के जीवन और उनके सामाजिक संघर्ष को इतिहास में उपयुक्त जगह नहीं मिल पाई है।
इसलिए नर्मदा घाटी के लोगों और मेरे (नंदिनी ओझा) जैसे कार्यकर्ताओं को महसूस हुआ कि नर्मदा बचाओ आंदोलन के लोगों का, राष्ट्र की विकास यात्रा के इतिहास में और विशेष रूप से नर्मदा बचाओ आंदोलन के इतिहास में जायज़ मुकाम होना चाहिए। आंदोलन के एक वरिष्ठ आदिवासी नेता ने इसे इन शब्दों में समझाया है:
“मुझे लगता है कि नर्मदा के बीस साल के संघर्ष के इतिहास को कहीं भी दर्ज नहीं किया गया है। जो भी लिखा गया है वह आंदोलन द्वारा उठाए गए मुद्दों के बारे में है, जैसे पर्यावरण पर प्रभाव, परियोजना के लाभ-लागत का विश्लेषण, विस्थापन और पुनर्वास…पर नर्मदा के संघर्ष में लोगों और कार्यकर्ताओं का क्या योगदान रहा है या उन्होंने कैसे यह लड़ाई लड़ी है, इसका ब्यौरा कहीं नहीं लिखा गया है… मुझे लगता है कि ऐसे इतिहास को संघर्ष से जुड़ने वाले सभी गांवों के लोगों से मिलकर लिखा जाना चाहिए…क्योंकि अगर ऐसा इतिहास लिखा गया तो यह आने वाली पीढ़ी के लिए मूल्यवान साबित होगा। आने वाली पीढ़ियां याद रखेंगी कि किस तरह उनके पूर्वजों ने अपनी ज़मीनों, अपने जंगलों, अपने गांवों और अपनी माँ नर्मदा को बचने के लिए संघर्ष किया था।”
– केवलसिंग वसावे, मौखिक इतिहास साक्षात्कार, अगस्त 2007
इस मौखिक इतिहास से निकलने वाले निष्कर्ष
इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए, मैंने सरदार सरोवर परियोजना के खिलाफ खड़े होने वाले नर्मदा बचाओ आंदोलन के मौखिक इतिहास को संकलित किया है जिसके तहत संघर्ष के अस्सी प्रमुख सदस्यों के साथ 400 घंटों से अधिक अवधि के डिजिटल साक्षात्कार रिकॉर्ड किये गए हैं। इस तरह इकट्ठा किया गया मौखिक इतिहास सरदार सरोवर के खिलाफ खड़े हुए इस विशाल जन आंदोलन, उसके पीछे के कारण, आंदोलन में साधारण लोगों की भूमिका और उनके योगदान और उसके इतिहास को समझने में मदद करता है। यह सभी साक्षात्कार हमें विकास के मॉडल के रूप में बांधों को चुनौती देने, बड़े बांधों के पर्यावरण पर होने वाले प्रभावों, विस्थापन का शिकार होने वाले लोगों के जीवन, पुनर्वास की योजना की खामियों, जल प्रबंधन और बिजली उत्पादन के विकल्प जैसे मुद्दों को और गहराई से समझने में हमारी मदद करते हैं।
संकलित किया गया मौखिक इतिहास हमें यह भी समझने में मदद करता है:
- विकास की दो विचारधाराओं के बीच टकराव – सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और मुनाफा बनाम समता और न्याय पर आधारित टिकाऊ विकास
- दो दृष्टिकोणों के बीच टकराव
- एक ही राष्ट्र की दो जीवन शैलियों, संस्कृतियों, परम्पराओं के बीच टकराव
- विकास योजना बनाने वाले और तकनीकी विशेषज्ञ बनाम लोगों का पारंपरिक ज्ञान और समझ
इस मौखिक इतिहास से यह भी उजागर होता है कि विकास योजना बनाने वालों की इन योजनाओं का शिकार होने वालों के विस्थापन और पुनर्वास के सम्बन्ध में उनकी सोच कितनी संकीर्ण होती है।
इसके अलावा, इस मौखिक इतिहास के ज़रिये नर्मदा घाटी के लोगों के नर्मदा के साथ रिश्ते को, उनकी संस्कृति, परम्पराओं, संसाधनों पर आधारित टिकाऊ रोज़गार और उनसे जुडी चुनौतियों को, भाषाओँ, त्योहारों, मान्यताओं तथा जंगलों और साझा स्वामित्व वाले अन्य संसाधनों के उनके जीवन में महत्व को बेहतर समझा जा सकता है। यह मौखिक इतिहास इस बात की पुष्टि करता है कि नर्मदा घाटी दुनिया की सबसे प्राचीन और समृद्ध नदी-घाटी सभ्यताओं में से एक है और इसके ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व को भी उजागर करता है।
महत्वपूर्ण रूप से, नर्मदा आंदोलन का यह मौखिक इतिहास हमें समझने में मदद करता है कि किस तरह नर्मदा घाटी के लोगों ने “विकास” के प्रकोप और उससे पैदा होने वाली चुनौतियों के खिलाफ अपनी जीवन शैली, अपने जीवन के दृष्टिकोण, अपनी ज़मीनों, घरों, जंगलों और खुद नर्मदा नदी को बचाने के लिए संघर्ष किया।
यहाँ प्रस्तुत किया गया मौखिक इतिहास आज़ाद भारत के सबसे अहम सामाजिक और पर्यावरणीय आंदोलन का एक रिकॉर्ड है। इन साक्षात्कारों में आंदोलन में सक्रिय रहने वाले सदस्यों के आंतरिक अनुभवों और आंदोलन के बारे में उनकी समझ को दर्ज किया गया है। यह साक्षात्कार उन लोगों की आवाज़ें हैं जो बहुत कम सुनी जाती हैं।
इन साक्षात्कारों का एक अहम पहलू यह है कि क्योंकि ज़्यादातर साक्षात्कारदाता और साक्षात्कारकर्ता दोनों ने ही नर्मदा बचाओ आंदोलन में चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में कई सालो साथ काम किया था, इसलिए दोनों के बीच एक विश्वासपूर्ण रिश्ता पहले से ही मौजूद था।
यह आंदोलन में सीधे तौर पर जुड़े साथियों द्वारा अपने जीवन, अपनी भूमिका, संघर्ष से जुड़ी जानकारी, आंदोलन में आने वाले उतार-चढाव और अपने व्यक्तिगत मतों और विचारों के बारे में बिना झिझक के खुल कर बात करने के लिए बहुत ज़रूरी था।
अंत में, नर्मदा आंदोलन का यह मौखिक इतिहास हमें बड़े बांधों और विकास से जुडी वैश्विक बहस पर जन आंदोलनों के गहरे प्रभाव को भी समझने में मदद करता है। यह नर्मदा घाटी के लोगों, समुदायों, पर्यावरण, संस्कृति, विरासत, परम्पराओं को और राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया में विकास की बदलती धारणाओं को समझने में हमारी मदद करता है। यह टिकाऊ विकास के लिए जन संघर्षों और उसकी बारीकियों को समझने में भी हमारी मदद करता है। यह मौखिक इतिहास न सिर्फ इतिहास का अध्ययन करने वालों के लिए एक कीमती संसाधन साबित होगा बल्कि प्रतिरोध और विनाश को अभिव्यक्त करती यह आवाज़ें निति बनाने वालों को छोटे पर्यावरणीय, सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक पदचिन्ह वाली परियोजनाएं बनाने के लिए प्रेरित करेगा। यह सत्ताधारियों को नर्मदा नदी को राष्ट्रीय धरोहर के रूप में संरक्षित करने के उद्देश्य से नर्मदा पर बाकी बांधों की योजना को रद्द करने के लिए भी प्रेरित करेगा। उम्मीद है कि यह मौखिक इतिहास उन विनाशकारी बांधों के बंद किये जाने के पक्ष में भी तर्कों को मजबूत करेगा, जो उन लाभों में से 50 प्रतिशत से भी कम हासिल कर पाएं हैं, जिनका शुरुआत में दावा किया गया था।