ग्राम: वाघड़िया, गुजरात
कपिलाबेन तड़वी, “यह सब (केवड़िया कॉलोनी और इसके आस-पास) हमारी छाती पर बना है; जो भी है, सर्किट हाउस, बंगला; यह सब हमारे सीने पर खड़ा है। हमारी ज़मीनें, हमारे पुरखों की जमीनें; सरकार ने हमसे सब छीन लिया। हमसे वादा किया गया था कि हमें ज़मीन के बदले ज़मीन दी जाएगी। पर उन्होंने हमारी कोई भी मुश्किलें हल नहीं की। ये अफसर जो हमारी ज़मीनों पर काम कर रहे हैं; जो इन सभी सुविधाओं का मज़ा लूट रहे हैं; उनका तो मज़ा लेकिन बदले में हमें उन्ही अफसरों की गुलामी करनी पड़ती है। हमें जाकर उनके बर्तन मांजने पड़ते हैं, उनके घर का झाड़ू-पोछा करना पड़ता है, और उनके कपड़े धोने पड़ते हैं। अगर उन्होंने हमारी ज़मीनें नहीं छीनी होती, और अगर हमारी ज़मीनें हमारे ही पास होती, तो हम शांति से जी सकते थे, है कि नहीं…हमें यह सब दुःख इस बांध और उसे बनाने वाली जे.पी. कंपनी की वजह से ही झेलना पड़ रहा है… हम अपने घर का चूल्हा रोज़ कैसे जलाएं?”
सरदार सरोवर परियोजना की आवासीय कॉलोनी के लिए अपनी भूमि खोने के बावजूद कभी भी परियोजना प्रभावित नहीं माने गए केवड़िया कॉलोनी से प्रभावित 6 गांवों के निवासी गुजरात में बांध स्थल के नज़दीक के क्षेत्र में संघर्ष का केंद्र बिंदु बन गए और सरदार सरोवर परियोजना के खिलाफ लड़ रहे नर्मदा बचाओ आंदोलन का एक प्रमुख हिस्सा भी। उस समय परियोजना के खिलाफ आंदोलन तो दूर, उसके ऊपर उंगली उठाना भी बहुत मुश्किल था क्योंकि परियोजना के खिलाफ लोगों के विरोध को न सिर्फ राज्य द्वारा बल्कि नागरिक समाज के कुछ हिस्सों द्वारा भी द्वेषपूर्ण नज़रिये से देखा जाता था क्योंकि इस बांध को गुजरात की जीवन रेखा माना जाता था। इसके बावजूद, आदिवासी समुदाय, विशेष रूप से इन छह गांवों की महिलाओं ने परियोजना स्थल के नाक के ठीक नीचे रहते हुए इस परियोजना के खिलाफ संघर्ष की अगुवाई की।
कपिलाबेन का यहां साझा किया गया मौखिक इतिहास इन छह आदिवासी गांवों की ज़मीनों के अधिग्रहण की प्रक्रिया, बड़ी तादाद में अफसरों, सरकारी कर्मचारियों, मज़दूरों, और बाँध निर्माताओं के इस अनछुए आदिवासी गांव में आगमन और इसके प्रभावों, आदिवासी ज़मीनों पर विशालकाय ढांचों के निर्माण, आदिवासी परिवारों को पुनर्वास से वंचित रखे जाने, अपने अधिकारों और न्याय के लिए संघर्ष करने के उनके मूलभूत अधिकार को रौंदे जाने, दमनकारी सरकार के खिलाफ उनके लंबे और शक्तिशाली संघर्ष, और इन सबके आदिवासी जीवनशैली पर समग्र रूप से होने वाले प्रभावों को समझने के लिए बहुत ज़रूरी है। कपिलाबेन का साक्षात्कार इसलिए भी ज़रूर सुनने लायक है क्योंकि यह एक आदिवासी समुदाय के विस्थापन के दुखद इतिहास और स्वतंत्र भारत में विनाशकारी विकास परियोजनाओं के खिलाफ लड़े गए संघर्षों में से एक प्रमुख आंदोलन में आदिवासी महिलाओं की भूमिका पर रोशनी डालता है, एक ऐसा आंदोलन जिसने विकास परियोजनाओं के बारे में महत्वपूर्ण सवाल उठाये: “किसको फायदा? किसकी कीमत पर?” कपिलाबेन ने आंदोलन का सामने से नेतृत्व किया और कई सालों तक उनका घर ही नर्मदा बचाओ आंदोलन का कार्यालय था।
उनका साक्षात्कार हमें “गुजरात मॉडल” के इस प्रतीक के दूसरे पहलू को समझने में मदद करता है और यह भी दर्शाता है कि बड़े बांधो पर आधारित इस विकास के तहत आदिवासियों के साथ किस तरह का बर्ताव किया गया है। परियोजना और केवड़िया कॉलोनी जैसे बुनियादी सेवाओं से जुड़े निर्माण कार्यों ने आदिवासियों की जीवनशैली और सामाजिक ताने-बाने को बेरहमी से तार-तार कर दिया, जिसका सबसे बुरा असर महिलाओं पर पड़ा। विडंबना यह है कि आज केवड़िया कॉलोनी एक पर्यटक स्थल बन चुकी है और दुनिया की सबसे ऊँची प्रतिमा के यहां होने कारण, दुनिया भर के आकर्षण का केंद्र बन गई है, लेकिन यह सब जिन आदिवासियों की ज़मीनों पर खड़ा है, उन्हें कभी भी परियोजना प्रभावित परिवार मानकर पुनर्वास नहीं दिया गया। बल्कि उन्हें लगातार अपनी ज़मीनों और प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल किया जा रहा है और अगर वे इसका विरोध करते हैं, तो राज्य के दमन का शिकार बनाया जाता है। लेकिन इस सबके बावजूद लोग पीछे नहीं हटे हैं, और उनका संघर्ष अब भी, 1961 में आदिवासी ज़मीनों के अधिग्रहण के 60 साल बाद भी जारी है।
कपिलाबेन का यह साक्षात्कार राहुल बेनर्जी के नर्मदा बचाओ आंदोलन के आदिवासी महिला नेताओं के इस कथन की पुष्टि करता है, “आदिवासी महिला कार्यकर्ता, ये सभी ज़मीनी विचारक हैं जिन्होंने इस मिथक को चकनाचूर कर दिया है कि नर्मदा बचाओ आंदोलन शहरी ख़यालीयों द्वारा प्रेरित आंदोलन है”।
इस वीडियो में इस्तेमाल की गई कुछ तस्वीरें जोएर्ग बोएथलिंग के सौजन्य से हैं।
साक्षात्कार की अवधी: 2:00:00
भाषा: गुजराती, सबटाइटल्स अंग्रेज़ी में
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