डूब प्रभावित गांव निमगव्हाण, महाराष्ट्र
“हमारा पुराना गांव निमगव्हाण था…अब हमें वहां से हटाकर वाड़चील पुनर्वास स्थल भेजा गया है…और हम जब अपने पुराने गांव में थे, यानी मेरे बचपन में, यानी मेरा जन्म निमगव्हाण में हुआ। मैं वहीं पैदा हुई। उस समय, जन्म की तारीख का पंजीकरण हुआ ही नहीं करता था… क्योंकि हमारे दूर-दराज़ के गांव में सरकारी पंजीकरण नहीं हुआ करता था इसलिए कोई औपचारिक कागज़ भी नहीं दिए जाते थे… इसलिए स्कूल का पंजीकरण भी मेरे माता-पिता की मर्जी के हिसाब से हुआ…वो स्कूल कम से कम 10 किमी दूर है, 10-11 किमी। पहाड़ी इलाका होने की वजह से, स्कूल चल कर जाना पड़ता है, नदियों और खाड़ियों को पार करके। वहाँ कोई भी सड़क सुविधा नहीं है…जब में 9वीं कक्षा में थी, तब मैंने बैठक में पहली बार हिस्सा लिया, जब धुळे में लाठियां बरसाई गई थी। जब यहाँ निमगव्हाण में (सरकारी) सर्वेक्षण किया जा रहा था… जब पुलिस बल गांव में आया था, हम अपने खेत की बावड़ी पर थे। सर्वेक्षण नहीं किए जाने चाहिए। अगर सही तरीके से सर्वेक्षण करना है तो हमारी राय ठीक से मांगी जानी चाहिए, आमने-सामने बैठकर, नहीं तो हम सर्वेक्षण का विरोध करेंगे। हम अपनी बावड़ी के अंदर ही थे, लेकिन पुलिस जबरन अंदर घुस आई। उन्होंने लाठियां बरसाना और गोलीबारी शुरू कर दी। उस गोलीबारी में सुरंग गांव के हमारे एक लड़के की मौत हो गई, हमने इसके विरोध में जिला मुख्यालय तक रैली निकाली। वहाँ पर भी हमारे ऊपर बेरहमी से लाठियां बरसाई गई। हम सभी वहाँ थे, मैं, सारे गांव वाले और ताई भी। लाठियों की मार में हम सब घायल हुए थे। मैं तब 9वीं कक्षा में थी। पहली बार हमें इस तरह लाठियों से पीटा गया और हम जेल भी गए। पहली बार हमें जेल भेजा गया। हम 5 दिनों तक धुळे जेल के पहले बैरक में थे…”।
इस तरह शुरू होता है गीता वसावे, एक युवा आदिवासी लड़की का विस्मयकारी जीवन संघर्ष, जो आगे बड़ी होकर एक साहसी महिला, अपने समुदाय की और नर्मदा बचाओ आंदोलन की अग्रणी नेता के रूप में उभरती है। यह सिर्फ गीता की ही कहानी नहीं है, यह नर्मदा के लोगों की कहानी है, विनाशकारी विकास के खिलाफ उनके अभूतपूर्व संघर्ष की कहानी है, उस त्रासदी की भी जो बिना किसी निमंत्रण के उनकी ज़िन्दगियों पर बिजली की तरह गिरी, लेकिन इसके साथ-साथ यह उनकी हिम्मत और जुझारूपन की कहानी भी है।
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