ज्योत्स्ना शीला डांग

नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज पायलट प्रोजेक्ट, जिला गुमला, पलामू, बिहार

मैं एक छात्र संगठन का प्रतिनिधित्व करती हूँ। मैं बिहार में हो रहे विस्थापन से जुड़े मुद्दों पर बोलना चाहती हूँ। आज भी बिहार में लोग अनेक कारणों से लगातार विस्थापित हो रहे हैं। आपने देखा है कि विस्थापन के ख़िलाफ़ संघर्ष में महिलाओं की भागीदारी कैसी रही है और विस्थापन का महिलाओं पर कैसा प्रभाव पड़ा है। महिलाओं को इस संघर्ष में और भी बड़ी संख्या में जुड़ना चाहिए…

हमारे क्षेत्र में नेतरहाट के ख़िलाफ़ संघर्ष में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों से कहीं अधिक रही है। हमारा मानना है कि अगर महिलाओं की मौजूदगी पुरुषों की तुलना में दोगुनी और कई बार तीन गुनी न होती, तो हम सफल नहीं हो पाते। यह नहीं कह रहे कि हमने पूरी जीत हासिल कर ली है, लेकिन संघर्ष के दौरान हमने कई सफलताएँ प्राप्त की हैं।

सरकार पर्यावरण की बात करती है। आदिवासी जीवन और संस्कृति का आधार है—खेती, पानी- और जंगल। आदिवासी इन सबके इतने करीब हैं, उनका जीवन प्रकृति से इतना जुड़ा हुआ है कि उससे किसी भी तरह का अलगाव उनके लिए जीना कठिन बना देता है। हमें महिलाओं के रूप में अपनी आवाज़ उठानी होगी, अपने इस अधिकार की रक्षा करने के लिए कि हम इस रिश्ते को बनाए रखें। लेकिन सरकार चाहती है कि आदिवासियों—जो पर्यावरण के रक्षक हैं—को उनकी नदियों और ज़मीन से बेदखल कर दिया जाए।

बिहार में, झारखंड एक खनिज संपन्न इलाका है। यहाँ अनेक समुदाय रहते हैं। इनमें से पाँच समुदाय इस क्षेत्र के मूल निवासी हैं और कुल आबादी का 85-90% हिस्सा बनाते हैं। इनकी स्थिति तेज़ी से बिगड़ गई है क्योंकि पर्यावरण को अनेक स्तरों पर नष्ट किया गया है। टाटा स्टील कंपनी, बोकारो स्टील प्लांट, हातिया हेवी इंडस्ट्रीज़, बिहार में स्थापित किए गए हैं। यहाँ बिजली का उत्पादन हो रहा है। लेकिन बिजली के लाभ इन इलाकों में रहने वाले लोगों तक अब तक नहीं पहुँचे हैं।

यहाँ [बड़वानी, म.प्र.] के गाँवों में हम देख रहे हैं कि बिजली और सिंचाई की सुविधाएँ हैं। बिहार में हर तरफ अँधेरा है। सात्तलाई जाते समय, ट्रेन में हम देख रहे थे कि आसपास के गाँवों में बिजली है। बिहार में तो हमें दीपावली के समय भी इतनी रोशनी नहीं दिखाई देती!

इससे 245 गाँव प्रभावित होने वाले थे। इनमें 8 जातियाँ थीं और इनमें से 4 विलुप्तप्राय समुदाय हैं। इनमें मुख्य हैं आसुर, बिरहोर, बिरजिया और कोरबा जातियाँ। नवंबर 1961 में तत्कालीन विधायक श्री शिव प्रसाद साहू ने कहा था कि बिहार सरकार ने इस रेंज को मंज़ूरी दी है और 245 गाँवों के विस्थापन को स्वीकृति दे दी है। यह बात दो अधिसूचनाओं के ज़रिए सार्वजनिक की गई। यह सुनकर आदिवासी स्त्री-पुरुषों ने तय किया कि अब कुछ करना होगा। और सबने इस रेंज का विरोध किया। पुरुष और महिलाएँ, युवा और बुज़ुर्ग—सब एक शामियाने के नीचे इकट्ठा हुए और दिन-रात बैठे रहे। उन्होंने पुलिस का सामना किया, गोलियाँ और लाठीचार्ज झेला। अनेक लोगों की जान गई, पेड़ नष्ट कर दिए गए, जानवर मारे गए। जो मुआवज़ा दिया गया, वह बहुत ही मामूली था। इस रकम से क्या किया जा सकता था? मवेशियों के नुकसान या जान-माल की क्षति का कोई मुआवज़ा नहीं दिया गया। और हमें उम्मीद भी नहीं है कि भविष्य में रेंज बनने के बाद कोई मुआवज़ा दिया जाएगा।

परियोजना के पहले चरण में 308 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र का उपयोग होना था और सेना के अनुसार 7,855 लोग प्रभावित होने वाले थे। सेना ने कुल 19,856 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की माँग रखी थी। जिन 245 गाँवों को विस्थापन के लिए चुना गया, उनमें आदिवासी आबादी सबसे अधिक थी। इनमें से 30% लोग पहले ही दूसरे क्षेत्रों में जा चुके हैं। बहुत से लोग यहाँ स्थापित कारखानों और उद्योगों के कारण भी चले गए। हम 1990 से इस रेंज का विरोध कर रहे हैं, लेकिन 1993 से अधिक सक्रिय हो गए हैं।

इंदिरा गाँधी ने कहा था, “हमारे यहाँ गरीबी है, गरीब नहीं।” लेकिन लगता है सरकार इसका उल्टा सोचती है। क्योंकि गरीब रहेंगे, तो विकास नहीं हो सकता!

हमारा मानना है कि अगर कोई गतिविधि या संघर्ष सफल होना है तो उसमें महिलाओं की बड़ी भागीदारी होना ज़रूरी है…