गीता

मानव कल्याण ट्रस्ट साबरकांठा, गुजरात

मैं गुजरात से हूं। हमारे संगठन ने धरौई बांध के खिलाफ खेती के अधिकारों को लेकर संघर्ष किया था। नदी का किनारा केवल बड़े किसानों को ही खेती के लिए सुलभ था। आदिवासी लोग वहीं मज़दूरी करते थे। जब हमने देखा कि आदिवासियों के साथ कितना शोषण हो रहा है, तब हमारे संगठन ने हस्तक्षेप किया। खेड़ब्रह्मा के 70 गांवों को संगठित किया गया। युवाओं को प्रशिक्षण दिया गया, एक समिति बनाई गई। धरौई बांध आदिवासी भूमि पर बना था, लेकिन गरीब होने के कारण वे हाशिए पर धकेल दिए गए। समिति ने आदिवासियों को जमीन देने की मांग की। लेकिन सरकार ने कोई जवाब नहीं दिया। तब आंदोलन तेज़ हुआ।

खेती सहकारी मंडली बनाई गई, हर सदस्य ने 11 रुपये का अंशदान दिया। एक सत्याग्रह शुरू किया गया। सरकार ने खोखले आश्वासन दिए। आदिवासियों का सरकार पर से विश्वास उठ गया। अगला कार्यक्रम 10,000 लोगों का एक बड़ा सत्याग्रह था। लोग अपने दैनिक जरूरतों का सामान लेकर बांध की ओर कूच कर गए। उन्होंने कहा कि जब तक जमीन के अधिकार नहीं मिलते, वे नहीं हटेंगे। आखिरकार उन्होंने बड़े किसानों के खेतों पर कब्जा कर लिया, उन्हें अपनी ज़मीन और अपनी फसल मानते हुए।

सरकार को लगा कि अगर आंदोलन जारी रहा तो ज़मीन लोगों को देनी ही पड़ेगी। अंततः एक समझौता हुआ। लोगों से ज़मीन देने का वादा किया गया लेकिन तुरंत नहीं दि गई।  प्रदर्शन जारी रहे। संगठन की कोशिशें भी चलती रहीं… आखिरकार सरकार को ज़मीन देनी पड़ी। इस तरह आदिवासी स्त्री-पुरुष सफल हुए — लेकिन इसके लिए बहुत मेहनत करनी पड़ी।