नर्मदा बचाओ आंदोलन. झाबुआ, मध्य प्रदेश
हम पिछले 10 साल से संघर्ष कर रहे हैं। क्योंकि हम आने वाली पीढ़ियों को बर्बादी से बचाना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि वे यहीं रहें, जहाँ हम रहे हैं। इसलिए औरतें और मर्द दोनों संघर्ष कर रहे हैं।
मध्यप्रदेश की सरकार ने इतने सालों में हमें एक हैंडपंप तक नहीं दिया। और वे हमें हमारी ज़मीन छोड़ने को कहते हैं? उन्हें हमारे गाँव में आने का कोई हक नहीं है। जब सरकारी लोग आते हैं तो सोचते हैं — ये आदिवासी! पत्थरों जैसी ज़मीन पर कैसे जीते हैं? लेकिन चाहे जैसी भी हो, यह ज़मीन हमारी माँ जैसी है। और माँ, माँ होती है, चाहे जैसी भी हो। हम यहीं रहते हैं और कभी नहीं छोड़ेंगे… न अपना गाँव, न अपने जंगल। हमें जो कुछ चाहिए, सब हमें यहीं मिलता है।
आप हमारे इलाके की पहाड़ियों को देखिए। यहीं हमें घी, भाजी, दूध मिलता है। हमारे पशुओं को चारा यहीं मिलता है। सरकार जो मुआवज़ा देती है, वह हमारी ज़िंदगी भर खाई गई भाजी के बराबर भी नहीं है। तो फिर सरकार अगली पीढ़ियों के लिए क्या देगी?
हमने ठान लिया है कि हम अपनी ज़मीन नहीं छोड़ेंगे। गुजरात के बड़े किसान अपनी ज़मीन बेच रहे हैं—क्यों? आदिवासियों को बसाने के लिए? यह झूठ है। सरकार कहती है कि हम तुम्हारे लिए बड़े किसानों से ज़मीन खरीद रहे हैं। यह भी झूठ है। क्या सरकार ने कभी आदिवासियों के लिए ऐसे ज़मीन खरीदी है? कभी नहीं।
हमारी ताक़त इसी फैसले से आती है कि हम उजड़ेंगे नहीं। हम किसी को भी अपने गाँव में जंगल काटने नहीं देते। न सड़क बनाने देते हैं। न हमें उजाड़ने देते हैं। जब पानी भी आएगा, तब भी हम यहीं डटे रहेंगे।